भारतेंदु हरिश्चन्द्र
'भारतेंदु हरिश्चन्द्र' आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। उनका जन्म 9 सितंबर, 1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेंदु' उनकी उपाधि थी।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेंदु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेंदु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया।
भारतेंदु के जीवन का उद्देश्य अपने देश की उन्नति के मार्ग को साफ़-सुथरा और लम्बा-चौड़ा बनाना था। उन्होंने इसके काँटों और कंकड़ों को दूर किया। उसके दोनों ओर सुन्दर-सुन्दर क्यारियां बनाकर उनमें मनोरम फल-फूलों के वृक्ष लगाए। इस प्रकार उसे सुरम्य बना दिया की भारतवासी उस पर आनंदपूर्वक चलकर अपनी उन्नति के इष्ट स्थान तक पहुँच सकें।
'निज भाषा उन्नति' की दृष्टि से भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने 1868 में 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकाली, 1873 में 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' और फिर 'बाला-बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक नाटक एवं काव्य-कृतियों की रचना की। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें 'भारतेंदु' की उपाधि प्रदान की थी, जो उनके नाम का पर्याय बन गया।
भारतेंदु जी का देहांत चौंतीस साल की अल्पायु में 7 जनवरी 1885 में हो गया। यद्यपि वे अपने लगाये हुए वृक्षों को फल-फूलों से लदा हुआ न देख सके, फिर भी वे जीवन के उद्देश्यों में पूर्णतया सफल हुए। हिंदी भाषा और साहित्य में जो उन्नति आज दिखाई पड़ रही है उसके मूल कारण भारतेंदु जी ही हैं और उन्हें ही इस उन्नति के बीज को रोपित करने का श्रेय प्राप्त है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र हिंदी में आधुनिक साहित्य के जन्मदाता और भारतीय पुनर्जागरण के एक स्तंभ के रूप में मान्य रहेंगे।
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