मीराबाई
'मीराबाई' का जन्म सन 1498 ई० में मेड़ता (कुड़की)
ग्राम, राजस्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम रतन सिंह व माता का नाम वीर
कुमारी था। मीरा का विवाह उदयपुर के महाराणा भोजराज के साथ हुआ था, जो
मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे।
विवाह के कुछ समय बाद ही मीराबाई के पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं। मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तौड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ।
मीराबाई बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। पति के देहांत के पश्चात वे विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। मीरा मंदिरों में जाकर कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचने और गाने का राज परिवार द्वारा सख्त विरोध किया गया। घर वालों के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन चली गईं। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। वह समय बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का था। किन्तु सभी परिस्तिथियों के बीच मीरा की भक्ति सवर्मान्य बनी रही।
मीराबाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है। वे कृष्ण की अन्यय भक्त थीं। उन्होंने चार ग्रंथों की रचना की- बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद। इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मीराबाई का श्रीकृष्ण के भक्त कवियों में अपना अलग और महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है। भारतीय इतिहास के मध्यकाल (भक्तिकाल) में भक्ति और काव्य को प्रेम की अनन्य पीर एवं विरह की अनन्य वेदना से सजाने वाली विशिष्ट प्रतिभा के रूप में मीराबाई का नाम सदैव याद रखा जायेगा।
विवाह के कुछ समय बाद ही मीराबाई के पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं। मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तौड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ।
मीराबाई बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। पति के देहांत के पश्चात वे विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। मीरा मंदिरों में जाकर कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचने और गाने का राज परिवार द्वारा सख्त विरोध किया गया। घर वालों के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन चली गईं। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। वह समय बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का था। किन्तु सभी परिस्तिथियों के बीच मीरा की भक्ति सवर्मान्य बनी रही।
मीराबाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है। वे कृष्ण की अन्यय भक्त थीं। उन्होंने चार ग्रंथों की रचना की- बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद। इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मीराबाई का श्रीकृष्ण के भक्त कवियों में अपना अलग और महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है। भारतीय इतिहास के मध्यकाल (भक्तिकाल) में भक्ति और काव्य को प्रेम की अनन्य पीर एवं विरह की अनन्य वेदना से सजाने वाली विशिष्ट प्रतिभा के रूप में मीराबाई का नाम सदैव याद रखा जायेगा।
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